वैदिक कालीन भारत
प्रागैतिहासिक काल एवं आद्यैतिहासिक काल के बाद ऐतिहासिक कालीन भारत का अध्ययन किया जाता है सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के पश्चात भारतीय उपमहाद्वीप पर वैदिक सभ्यता का विकास हुआ वैदिक सभ्यता के काल का निर्धारण 1500 से 600 ई.पू. के मध्य किया गया है जिसे दो भागों में विभाजित किया जाता है
- पूर्व वैदिक काल या ऋगवैदिक काल (1500-1000 ई. पू.) एवं
- उत्तर वैदिक काल ( 600 ई. पू. - वर्तमान ) तक
वैदिक काल के संबंध में प्रमुख तथ्य
- वैदिक कालीन सभ्यता आर्य सभ्यता है जिसका विकास लगभग संपूर्ण उत्तर भारत क्षेत्र में देखने को मिलता है। इस सभ्यता की मुख्य भाषा वैदिक संस्कृत थी।ग्रामीण जीवन शैली के लोग यहां निवास करते थे।
- आर्यों का निवास स्थान मुख्यता सिंधु नदी तथा उसके 5 सहायक नदियां एवं सरस्वती नदी के आसपास के क्षेत्रों में था ऋग्वेद में उनके निवास स्थान के लिए सप्तम सैंधवत: शब्द का उल्लेख मिलता है।
- सर्वप्रथम आर्य इसी स्थान पर आकर बसे थे 7 नदियों में सिंधु नदी , सरस्वती (घघ्घर नदी ) , वितीस्ता (झेलम), अस्कीनी (चिनाब), पुरूषणी (रावी) , शतुद्री (सतलज ) , बिपाशा (व्यास )। इस क्षेत्र को दो भागों में बांटते हैं ब्रह्मा व्रत क्षेत्र सतलज नदी से यमुना नदी तक का क्षेत्र यह ऋगवैदिक काल का केंद्रीय स्थल माना गया है।ब्रह्म ऋषि क्षेत्र गंगा-यमुना के दोआब का क्षेत्र।
वैदिक कालीन नदियाँ |
- इनकी प्रशासनिक इकाइयां पांच भागों में बटी होती थी कुल , ग्राम , विश ,जन , राष्ट्र। कुल अर्थात एक परिवार प्रायः परिवार पितृसत्तात्मक था।कुल का समूह ग्राम कहलाता था।ग्राम का समूह विष , विष मिलकर जन एवं जन मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते थे।
- भारतीय पृष्ठभूमि पर आर्य संबंधी अवधारणा - भारत में आर्यों के आगमन के विषय में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न भिन्न मत देखने को मिलते हैं।" द डिस्कवरी ऑफ इंडिया भारत एक खोज " में लिखा है कि भारत में आर्य उत्तरी ध्रुव से आए। उसी प्रकार मैक्समूलर ने माना है कि आर्यों का निवास स्थान मध्य एशिया था। ऐसा मानकर चला जाता है कि आर्य वे हैं जो indo-european भाषा जानते मैक्समूलर के अनुसार आर्य मध्य एशिया से आए। डॉ संपूर्णानंद के अनुसार आर्य यूरेशिया के आल्स पर्वत क्षेत्र से भारत आए थे। बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं आर्य आर्कटिक प्रदेश से अर्थात उत्तरी ध्रूव से भारत आए। दयानंद सरस्वती लिखते हैं तिब्बती क्षेत्र से आर्य भारत में प्रवेश किए थे।उपरोक्त विद्वानों ने आर्यों के आगमन के अलग-अलग मार्ग बताए हैं। वैदिक काल के संदर्भ में जानकारी दोनों ही स्त्रोतों साहित्यिक एवं पुरातात्विक से मिलती है।
- ऋग्वैदिक कालीन पुरातात्विक अभिलेख - सबसे प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया की बोकाजकोई (1400 ई.पू. ) नामक स्थान से प्राप्त हुआ है इसका कालक्रम 1400 ईसा पूर्व का है।अभिलेख के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें विभिन्न राजाओं ने वैदिक युग के प्रमुख देवी देवताओं को साक्षी मानकर एक संधि की थी। उस संधि में उस समय के प्रमुख देवी देवताओं इंद्र , वरुण, मित्र, नासत्य का उल्लेख हुआ है। नासत्य शब्द का प्रयोग अश्विन देवता के लिए हुआ है।
- बोगाजकोई अभिलेख के बाद कस्सी अभिलेख (1600 ई.पू. ) है। यह अभिलेख सीरिया से प्राप्त हुआ है।कस्सी अभिलेख में एक राजा सुब्बीलिमा और एक राजा के बीच एक संधि का वर्णन है। कस्सी अभिलेख 1600 ई.पू. का है। यह अभिलेख इराक से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में आर्यों की एक शाखा का इरान आना जबकि एक शाखा का भारत के आना इस प्रकार का जिक्र किया गया है।
- आर्यों के आगमन का काल विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढंग से निर्धारित करने की चेष्टा की है।
- बालगंगाधर तिलक के अनुसार – 6000 ई.पू. ,हरमन जैकोबी के अनुसार – 4500 – 2500 ई.पू. ,विटरनिजत्स के अनुसार – 3000 ई.पू. ,आर. के. मुकर्जी के अनुसार – 2500 ई.पू. ,मैक्समूलर के अनुसार – 1500 ई.पू.
आर्यों का मूल निवास स्थान
आर्यों के निवास के बारे में भी अनेक विद्वानों के अनेक मत है जो निम्नलिखित है।
बालगंगाधर तिलक के अनुसार – आकर्टिक प्रदेश
फिलिप सेसेटी और विलियम जोन्स के अनुसार – यूरोप
पी. गाइल्स के अनुसार – हंगरी तथा डेन्यूब नदी
मैक्समूलर के अनुसार – मध्य एशिया
फेंका के अनुसार – स्कैण्डिनेविया
स्वामी दयानन्द के अनुसार – तिब्बत
जी.बी. रौड के अनुसार – बैक्ट्रया
- वैदिक काल में व्यापार - संभवत: वस्तु विनिमय प्रणाली उस युग में भी प्रचलित रही होगी। यद्यपि विनिमय के रूप में गाय, घोड़े एवं निष्क का उपयोग होता था। निष्क संभवत: स्वर्ण आभूषण होता था या फिर सोने का एक ढेला। जाहिर है कि अभी नियमित सिक्के विकसित नहीं हुए थे। अष्टकणों (अष्टकर्मी) नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आयाँ को संभवत: अंकों की जानकारी थी। ऋण देकर ब्याज देने वाले को वेकनाट कहा जाता था।व्यापार के दूर-दूर जाने वाले व्यक्ति को पणि कहा जात.. लेन-देन में वस्तु-विनिमय प्रणाली मौजूद थी।
- भारत में आर्य अलग-अलग कबीलों (जन) के रूप में आये थे। आर्य कोई जाति या नस्ल नहीं, बल्कि भाषाई/सांस्कृतिक समूह थे। भारत में आने पर इनका 2 तरह से संघर्ष हुआ।आर्य-अनार्य संघर्ष(दशराज युद्ध) एवं आर्य-आर्य संघर्ष(दास राज युद्ध )
- आर्यों का जीवन प्रारंभ में अस्थायी था। क्योंकि ये लोग कबीले से संबंधित थे,पशुपालन इनका मुख्य पेशा था। कृषि द्वितीयक या गौण पेशा था।आर्यो द्वारा कृषि को हीन कर्म माना जाता था।भूमि को आर्य अपनी संपत्ति नहीं मानते थे, पशुओं को वे अपनी संपत्ति मानते थे।
- प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल या परिवार थी।कुल या परिवार का मुखिया कुलप /कुलपति कहलाता था।
- बहुत सारे परिवार मिलकर ग्राम बनाते थे। ग्राम का मुखिया ग्रामणी कहलाता था। ऋग्वेद में ग्रामणी शब्द का 30 बार उल्लेख हुआ है। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे तथा विश का मुखिया विशपति कहलाता था।
- जन जिसे कबीला भी कहा जाता था का मुखिया जनस्य गोपा (राजा) होता था , जनस्य गोपा का ऋग्वेद में 275 बार उल्लेख मिलता है।राजा का पद युद्ध की आवश्यकता के अनुकूल होता था। उसका कोई धार्मिक कार्य /अधिकार नहीं होता था।
- राजा कबीले का संरक्षक होता था। ऋग्वैदिक काल में राजा ने सम्राट की उपाधि धारण नहीं की थी। राजपद का दैवीकरण या राजा का धर्म से राजनिति में जुङाव नहीं था। इस काल में राजा साधारण मुखिया के समान था।
- कबीले के लोग स्वैच्छिक रूप से बलि नामक कर देते थे। कर अनिवार्य या स्थायी नहीं था।राजकोष खाली था। स्थाई सेना नहीं थी तथा स्थाई प्रशासनिक अधिकारी भी नहीं थे। कर व्यवस्था स्थाई नहीं होने के कारण पेशेवर नौकरशाही का विकास नहीं हो पाया था। इस काल में शासन का लोकप्रिय स्वरूप राजतंत्र था। हालांकि कुछ गणों का भी उल्लेख मिलता है। गण का उल्लेख ऋग्वेद में 46 बार मिलता है।
- बलिः दैनिक उपभोग की वस्तुयें , दूध,दही,फल,फूल,अनाज,दालें,ऊन आदि पर दिया जाने वाला कर।
- ऋग्वैदिक कालीन समाज कबीलाई समाज था।समाज पुरुष प्रधान था। (पितृसत्तात्मक)पशुपालन पर आधारित अस्थाई समाज था। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पशुपालन तथा युद्ध की आवश्यकता के अनुकूल समाज था। महिलाओं की स्थिती भी अच्छी थी। समाज में बाल विवाह, सतीप्रथा, विधवा व्यवस्था, प्रदापर्था, जौहर प्रथा, आदि कुरीतियों का प्रचलन नहीं था।
- समाज में विधवा विवाह, अंतरजातीय विवाह, स्वंयवर प्रथा, उपनयन संस्कार आदि का प्रचलन महिलाओं की बेहतर स्थिति को दर्शाता है। नियोग प्रथा तथा पुरुषों में बहुविवाह का प्रचलन था। हालांकि अंतःसंबंध में विवाह तथा बहिपतित्व प्रथा का अपवाद रूप में उल्लेख मिलता है, यह आदिम जनजातीय समाज के तत्वों के अवशेष रूप में थे। शाकाहारी तथा मांसाहारी दोंनो प्रकार का समाज था।
- गाय का वैदिक समाज में महत्तव था इसलिए अधिकांश जीवन की घटनाएँ गाय के नाम से जुङी थी। जैसे – राजा को (गोपति, गोप्ता), धनीव्यक्ति को (द्रविण, श्वेवान), समय की माप (गोधूली बेला), दूरी की माप (गवयतू), पुत्री को(दुहिता), अतिथि को (गोहन), युद्ध को(गविष्टि/गेसू/गम्य/गत्य) आदि नाम गाय के नामों पर थे।
- पहली बार 10 वें मंडल के पुरुष सूक्त में चारों वर्णों का नाम मिलता है। वैश्य तथा शूद्र दोनों का नाम ऋग्वेद में पहली बार मिलता है।
- इस काल में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। लचीलापन था। जैसे -विश्वामित्र पहले क्षत्रिय थे जो बाद में पुरोहित बन गये। समाज में आर्यों के 3वर्ण बने तथा ऋग्वैदिक काल में समाज कर्म पर आधारित हो गया था।
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