सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन 

सांख्य दर्शन भारत का एक प्राचीन दर्शन है , इसके प्रणेता महर्षि कपिल माने जाते हैं।  सांख्य दर्शन भारत का सबसे प्राचीन दर्शन है। 
सांख्य दर्शन द्वैतवाद का समर्थक है अर्थात सांख्य में दो प्रकार की सत्ता को स्वीकार किया गया है  
1  प्रकृति और 
2  पुरुष

सांख्य दर्शन का आधार कपिल मुनि द्वारा रचित सांख्य प्रवचन सूत्र को कहा जाता है कपिल मुनि ने सांख्य दर्शन पर दो ग्रंथ लिखे थे 
1  सांख्य प्रवचन सूत्र एवं  2  तत्व समास 

    किंतु दुर्भाग्यवश दोनों ही ग्रंथ नष्ट हो चुके हैं वर्तमान समय में सांख्य दर्शन का आधार ईश्वर कृष्ण द्वारा रचित सांख्यकारिका है ईश्वरकृष्ण असुरि  के शिष्य थे और असुरि कपिल के शिष्य थे।
 

   कार्य कारण सिद्धांत (सत्कार्यवाद )

    सांख्य दर्शन का आधार उसका कार्य कारण सिद्धांत है जिसे हम सत्कार्यवाद के नाम से जानते हैं सत्कार्यवाद सांख्य का कार्य कारण सिद्धांत है। सांख्य के कार्य कारण सिद्धांत के सम्मुख एक मुख्य प्रश्न चिन्ह आता है कि क्या कार्य की सत्ता कार्य की उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण में विद्यमान रहती है या नहीं ? सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति के पूर्व भी उपादान कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहती है। 
सत + कार्य + वाद  अर्थात कार्य की सत्ता का उत्पत्ति के पूर्व भी विद्यमान रहना यही सत्कार्यवाद है।
 
उदाहरण  - यदि "क" को कारण तथा "ख" को कार्य माना जाए तो सत्कार्यवाद के अनुसार "ख" उत्पत्ति के पूर्व भी अव्यक्त रूप से "क" में विद्यमान रहेगा। कार्य और कारण में सिर्फ आकार या  स्वरूप का भेद रहता है यदि कारण अव्यक्त कार्य है तो कार्य अभिव्यक्त कारण है। 

सत्कार्यवाद के पक्ष में तर्क 

  • यदि कार्य की सत्ता को उत्पत्ति के पूर्व कारण में अनुपस्थित माना जाए तो आखिर कार्य की उत्पत्ति कहां से होगी जो असत है उससे सत का निर्माण कैसे होगा ?
  • जिस प्रकार हम नमक से चीनी या चीनी से नमक की प्राप्ति नहीं कर सकते क्योंकि उसमें वह विद्यमान ही नहीं रहते, अर्थात कारण में कार्य का अभाव है तभी तो हम कार्य अर्थात नमक या चीनी की प्राप्ति नहीं कर सकते। 
  •  एक विशेष कार्य के पूर्ण होने के लिए एक विशेष प्रकार के उपादान कारण की आवश्यकता होती है उदाहरण जैसे घड़े के निर्माण के लिए मिट्टी की आवश्यकता दही के निर्माण के लिए दूध की आवश्यकता रहती है आदि। 
  • असत से सत का निर्माण नहीं हो सकता अर्थात कारण में कार्य का निहित होना जरूरी है। 
  • प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य की प्राप्ति नहीं हो सकती  केवल शशक्त कारण से ही अभीष्ट कार्य संभव है। 
  • यदि कार्य, कारण में उत्पत्ति के पूर्व अगर विद्यमान नहीं रहता तो दोनों कार्य एवं कारण का संबंधित होना असत होगा जो असंभव है। 
  • कार्य और कारण में केवल आकर  भेद है। 
    सत्कार्यवाद के सम्मुख एक प्रमुख प्रश्न यह है क्या कार्य कारण का वास्तविक रूपांतरण है या आंशिक ? इसी आधार पर सत्कार्यवाद आगे चलकर परिणामवाद एवं विवर्तवाद का रूप धारण कर लेता है। 

    जहां परिणामवाद सत्कार्यवाद का भावात्मक उत्तर देकर उसके वास्तविक रूपांतरण को स्वीकार करता है , वही विवर्तवाद निषेधात्मक उत्तर के साथ कारण का कार्य में वास्तविक रूपांतरण को स्वीकार नहीं करता है। 

    सांख्य दर्शन भावात्मक  उत्तर को स्वीकार कर परिणामवाद का समर्थक हो जाता है आगे चलकर विवर्तवाद को श्री शंकराचार्य जी द्वारा स्वीकार किया जाता है सांख्य दर्शन के अनुसार समस्त विश्व प्रकृति का ही प्रवर्तित रूप है सांख्य के इस मत को प्रकृति परिणामवाद कहा जाता है। 

         


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