योग दर्शन

 योग दर्शन

     योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि माने जाते हैं। पतंजलि जी ने जीवन के चरम लक्ष्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति के लिए विवेक ज्ञान को ही पर्याप्त नहीं माना है अपितु अपने जीवन में योगाभ्यास को भी शामिल करने पर जोर दिया है। योग को जीवन में चरितार्थ करना योग दर्शन का एक प्रमुख लक्ष्य है। 

    योग दर्शन एक द्वैतवादी दर्शन है।  यह सांख्य के तत्व शास्त्र को पूर्णता स्वीकार करता है बस यह ईश्वर को और जोड़ देता है योग दर्शन को इसीलिए सेश्वर सांख्य भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ईश्वर के साथ सांख्य दर्शन। 

    योग दर्शन का आधार पतंजलि द्वारा रचित योग सूत्र है योग सूत्र पर महर्षि व्यास ने एक भाष्य लिखा है जिसे योग भाष्य कहते हैं यह योग दर्शन का प्रमाणित ग्रंथ है वाचस्पति मिश्र ने योग दर्शन पर एक टीका लिखिए जिसका नाम वैशारदी है। 

    सांख्य की तरह योग दर्शन का भी चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है योग दर्शन भी संसार को तीन प्रकार की दुखों से परिपूर्ण मानता है एक आध्यात्मिक दुख दूसरा अधिभौतिक दुख तीसरा अधिदैविक दुख।मोक्ष प्राप्ति का अर्थ इन तीनों प्रकार की दुखों से मुक्त होना है। 

योग का तत्व विचार  

     सांख्य 25 प्रकार के तत्व को स्वीकार करता है जिसमें 10 बाह्य इंद्रियां 3 आंतरिक इंद्रियां 5 तन्मात्रा 5 महाभूत एवं प्रकृति और पुरुष शामिल है।  योग  सांख्य के इन 25 प्रकार के तत्व को स्वीकार करता है उसमें अपना एक तत्व ईश्वर और जोड़ देता है इस प्रकार योग दर्शन में 26 प्रकार के तत्वों को माना गया है। 

योग का प्रमाण विज्ञान

      योग ने भी सांख्य की तरह तीन प्रकार के प्रमाणों को स्वीकार किया है -

1 प्रत्यक्ष 

2 अनुमान

3  शब्द  

योग का जगत विचार 

  योग दर्शन सांख्य दर्शन की तरह जगत की उत्पत्ति प्रकृति से मानता है और सांख्य के विकासवाद के सिद्धांत को पूर्णत: अपनाता है। 

योग का कार्य - कारण सिद्धांत

    योग का कार्य कारण सिद्धांत सांख्य के सत्कार्यवाद को योग पूर्णत: स्वीकार करता है अर्थात कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान होती है , स्वीकार करता है। 

योग दर्शन में चित्त भूमियां 

     चित्त भूमि  का अर्थ हमारी मन की विभिन्न दशाओं से है। महर्षि व्यास के अनुसार चित्त की पांच अवस्थाएं होती है 

  1. क्षिप्त चित्त  -  यह चित्त की वह अवस्था है जिसमें चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है।  इस अवस्था में चित्त अत्यधिक चंचल एवं सक्रिय रहता है मंकी मंकी इस अवस्था में चित्र का ध्यान एक जगह केंद्रित नहीं रहता है वह इधर-उधर दौड़ते रहता है यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है।
  2. मूढ़ चित्त - चित्त की वह अवस्था है जिसमें वह तमोगुण के प्रभाव में रहता है , इस अवस्था में निद्रा, आलस्य इत्यादि की प्रबलता रहती है।चित्त में निष्क्रियता का उदय होता है इस अवस्था में चित्र योगाभ्यास के लिए उपयुक्त नहीं है। 
  3. विक्षिप्त अवस्था -  यह चित्त की तीसरी अवस्था है।  इस अवस्था में चित्त कुछ समय के लिए वस्तु पर जाता है परंतु स्थिर नहीं रहता वह पुनः इधर उधर चला जाता है यह अवस्था क्षिप्त और मूल के मध्य की अवस्था है। 
  4. एकाग्र चित्त -  यह चित्त की चौथी अवस्था  है जो सत्व गुण के प्रभाव में रहता है सतोगुण की प्रबलता के कारण इस अवस्था में ज्ञान का प्रकाश रहता है इसमें व्यक्ति किसी वस्तु पर अपना ध्यान देर तक टीका पाता है परंतु इस अवस्था में भी मनुष्य संपूर्ण चित्र वृत्तियों का निरोध नहीं कर पाता यह आंशिक रूप से योग के लिए उपयुक्त है। 
  5. निरुद्ध अवस्था - इस अवस्था में मनुष्य पूर्णरूपेण चित्त वृत्तियों का निरोध करने में सशक्त रहता है और अपना ध्यान किसी बिंदु पर केंद्रित कर पाता है यह योग के लिए अत्यधिक उचित अवस्था है या सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। 

योग के अष्टांग मार्ग 

    योग दर्शन में आठ प्रकार के मार्गों की चर्चा हुई है जिसे अष्टांग मार्ग कहा जाता है यह है यम , नियम , आसन ,प्राणायाम , प्रत्याहार ,धारणा , ध्यान, समाधि। यह आठो नियम मिलकर अष्टांग मार्ग कहलाते हैं। 
     मनुष्य दुखों से तब तक परिपूर्ण है जब तक वह अज्ञान से गिरा हुआ है अर्थात  अविवेक दुख का मूल है। मनुष्य इस बंधन से योग के माध्यम से निकल सकता है किंतु योग के लिए चित्त वृत्तियों का निरोध होना आवश्यक है। जब तक मनुष्य का चित्त विकारों से परिपूर्ण है वह योग को नहीं अपना पाएगा।  अतः चित्त वृत्तियों का निरोध आवश्यक है और इसे प्राप्त करने के लिए हम अष्टांग मार्ग का सहारा लेते हैं।

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