न्याय दर्शन

न्याय दर्शन

     न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम माने जाते हैं।  इनका अन्य नाम अक्षपाद भी है इसी कारण न्याय-दर्शन को अक्षपाद-दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन के ज्ञान का आधार गौतम मुनि द्वारा रचित न्यायसूत्र है जो न्याय दर्शन का प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। 

     न्याय दर्शन के समस्त साहित्य को दो भागों में बांटा जाता है -

 1 प्राचीन न्याय

2 नव्य न्याय कहा जाता है। 

     गंगेश उपाध्याय की तत्व चिंतामणि नामक ग्रंथ से नव्य न्याय का प्रारंभ माना गया है प्राचीन न्याय में तत्व शास्त्र पर अधिक जोर दिया गया है जबकि नव्य न्याय में तर्क शास्त्र पर अधिक जोर दिया गया है। 

न्याय का तत्व विचार 

अन्य दर्शनों की भांति न्याय दर्शन का भी चरम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है। मोक्ष की अनुभूति तत्वज्ञान अर्थात वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानने से हो सकती है।  मूल रूप से अज्ञान का नाश होने के पश्चात ही मोक्ष प्राप्ति संभव है न्याय दर्शन में 16 प्रकार के पदार्थों (तत्वों) की चर्चा हुई है। 
  1. प्रमाण – ये मुख्य चार हैं – प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान एवं शब्द
  2. प्रमेय – ये बारह हैं – आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि / ज्ञान / उपलब्धि , मन, प्रवृत्ति , दोष, प्रेतभाव , फल, दुःख और उपवर्ग।
  3. संशय
  4. प्रयोजन
  5. दृष्टान्त
  6. सिद्धान्त – चार प्रकार के है : सर्वतन्त्र सिद्धान्त , प्रतितन्त्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभुपगम सिद्धान्त।
  7. अवयव
  8. तर्क
  9. निर्णय
  10. वाद
  11. जल्प
  12. वितण्डता
  13. हेत्वाभास – ये पांच प्रकार के होते हैं : सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत।
  14. छल – वाक् छल , सामान्य छल और उपचार छल।
  15. जाति
  16. निग्रहस्थान

न्याय का प्रमाण शाश्त्र 

     न्याय दर्शन के अनुसार चार प्रकार के प्रमाण होते हैं 
  1. प्रत्यक्ष 
  2. अनुमान 
  3. उपमान 
  4. शब्द

प्रमा एवं अप्रमा 

    ज्ञान को दो रूपों में वर्गीकृत किया जाता है 
प्रमा (यथार्थ ज्ञान) -  यथार्थ ज्ञान अर्थात जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना या वास्तविक रूप को स्वीकार करना। यथार्थ ज्ञान को ही प्रमा कहते है। 
2 अप्रमा (अयथार्थ ज्ञान )- अयथार्थ ज्ञान अर्थात जो जैसा है उसके भिन्न रूप को देखना। अयथार्थ ज्ञान को ही अप्रमा कहा जाता है। 
     उदाहरण एक व्यक्ति रात्रि के समय रस्सी को सांप समझता है वही दूसरा व्यक्ति उसे रस्सी के रूप में स्वीकार करता है यहां सांप समझने वाला अयथार्थ ज्ञान प्राप्त करता है जबकि रस्सी के रूप में स्वीकार करने वाला यथार्थ ज्ञान को।

प्रमा के अंग 

  1. प्रमाता (knower ) - ज्ञान आत्मा का गुण है ,यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कोई ज्ञान प्राप्त करने वाला अर्थात प्रमाता हो।   
  2. प्रमेय (Object of knowladge ) - ज्ञान किसी ना किसी विषय का होता है अर्थात प्रमेय कहां हो ना आवश्यक है। 
  3. प्रमाण (Source of knowladge) - प्रमाण प्रमाता एवं प्रमेय के मध्य की कड़ी है। प्रमेय  के साक्ष्य के रूप में उपस्थित रहता है। 

 



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