भारतीय दर्शन का विकास

 भारतीय दर्शन का विकास 

  भारतीय दर्शन का अर्थ है ऐसे दर्शन  जिसका विकास भारत वर्ष में हुआ।  भारतीय दर्शन में दो प्रमुख संप्रदाय को माना गया है जिसमें पहला है आस्तिक दर्शन और दूसरा है नास्तिक दर्शन दोनों की व्याख्या वेद के अनुरूप हुई है अतः जो वेद की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं , आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और जो वेद की प्रमाणिकता को नकारते हैं नास्तिक दर्शन के अंतर्गत रखे गए हैं

     भारतीय दर्शन का विकास एक क्रमिक विकास का परिणाम है।  भारतीय दर्शन का विकास कौतूहलवश जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से ना होकर सृष्टि के विविध प्रकार के दुखों को दृष्टिगोचर करते हुए  उसके निवारण के लिए  हुआ है। 

    जब भारतीय दार्शनिकों के मन में यह प्रश्न उठा कि इस संसार में वास्तविक सुख क्या है ? या यूँ कहे जब भारतीय दार्शनिकों ने अपने आसपास विविध प्रकार के दुख यथा हिंसा ,द्वेष, राग, शारिरिक दुख,  मानसिक दुख आदि से अपने आप को घिरा हुआ पाया तो उनके मन में इन दुखों से निदान के लिए चिंतन उठने लगी इन्हीं चिंताओं का परिणाम के रूप में निकल कर सामने आया भारतीय दर्शन। 

     जिस समय मनुष्य लिखना पढ़ना नहीं जानता था उस समय से ही दार्शनिकों का उद्भव हो चुका था फिर क्रमिक रूप से धीरे-धीरे यह चिंतन शीलता और इसकी शैली थोड़ी-थोड़ी परिवर्तित होने लगी। धीरे-धीरे वेदों का विकास होने लगा और हम देखते हैं कि सूत्र काल के समय तक हमारे भारतीय दर्शन एक अमिट छाप बन चुका था यह छाप पूरे विश्व में एक अमिट छाप के रूप में वर्तमान में भी मौजूद है। 

    वर्तमान में जो भारतीय दर्शन का हम अध्ययन करते हैं वह वेद पर आधारित है जो वेद को मानते हैं वह आस्तिक और जो नहीं मानते हैं नास्तिक दर्शन के अंतर्गत रखे जाते हैं इन दर्शनों की अपनी अपनी धारणाएँ है। अपने-अपने कुछ मापदंड है और अपने अपने मापदंडों के अंतर्गत सभी मनुष्यों के विविध प्रश्नों का उत्तर देने में परिपूर्ण है भारतीय दर्शन में मुख्य रूप से षड्दर्शन को आस्तिक दर्शन कहा जाता है जिसमें सांख्य ,योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत पाते हैं वही नास्तिक दर्शन की श्रेणी में जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन एवं चार्वाक दर्शन आते है। 

भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएं

  • भारतीय दर्शन का प्रमुख लक्षण यह है कि यहां के दार्शनिकों ने संसार को दुखमय माना है अर्थात उनके अनुसार संसार विभिन्न दुखों से भरा हुआ है और इन्हीं दुखों के निवारण के लिए भारतीय दर्शन का जन्म हुआ। 
  •  भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन को छोड़कर यहां के प्रत्येक दर्शन ने आत्मा की सत्ता स्वीकार की है अर्थात आत्मा के स्वरूप को स्वीकार करती है चाहे वह आस्तिक दर्शन हो या नास्तिक। 
  • भारतीय दर्शन कर्म सिद्धांत का पालन करता है अर्थात संसार कर्म और उसके फल के अनुसार काम करती है कृतप्रणाश  एवं अकृतमयुपगम यह दोनों सिद्धांत अपने आप में विशिष्ट स्थान है कृतप्रणाश अर्थात किए हुए कर्मों के फल नष्ट नहीं होते एवं अकृतमयुपगम  अर्थात बिना किए हुए कर्मों के फल भी प्राप्त नहीं होते हैं। 
  • संसार एक नियम का पालन करती है जिसे हमारे प्राचीन ऋषियों ने ऋत की संज्ञा दी है  ऋत एक सार्वत्रिक नियम है जिससे सृष्टि की  स्थिति बनी हुई है और यह नियम इस सृष्टि को चलायमान रखता है। 
  • निष्काम कर्म को हमारे भारतीय दार्शनिकों ने भुने हुए बीच की संज्ञा से सुशोभित किया है अर्थात जिस प्रकार भुने हुए बीज से कभी पौधे का निर्माण नहीं हो सकता उसी प्रकार निष्काम कर्म भी फल प्रदान नहीं क्र सकता। 
  • कर्म को तीन रूप में वर्गीकृत किया गया है  - 
            (1) संचित कर्म - यह वह कर्म है जो अतीत से उत्पन्न होता है परंतु जिसका फल अभी मिलना शुरू नहीं हुआ है। 
            (2) प्रारब्ध कर्म -  यह  वह  कर्म है जिसका फल मिलना शुरू हो गया है इसका संबंध भी अतीत जीवन से है। 
            (3) वर्तमान कर्म  - जो वर्तमान समय में हम कर्म के द्वारा संचित करते हैं यह तीनों कर्म फल है। 
  • हमारे भारतीय दार्शनिकों ने पुनर्जन्म की मान्यता को स्वीकार किया है अर्थात वर्तमान कर्म  के अनुसार व्यक्ति का पुनर्जन्म होते रहता है जब तक वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेता। 
  • भारतीय दर्शन अपने दर्शन के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देता है ना कि उसके सैद्धांतिक पहलुओं पर अर्थात जो कुछ भी हम दर्शन द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं उसको व्यवहारिक जीवन में प्रयोग करना मान्य करते हैं। 

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