वैदिक कालीन छत्तीसगढ़

      श्री प्यारे लाल गुप्त जी के शब्दों में प्राचीन कथा के अनुसार रतनपुर छत्तीसगढ़ के चारो युग की प्राचीन राजधानी थी सतयुग में इसका नाम मणिपुर था त्रेता में भी मणिकपुर द्वापर में हीरापुर और कलयुग में इसका नाम रतनपुर है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में वैदिक युग की छाप अमिट रूप से देखने को मिलती है। ऋगवैदिक काल या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई. पू.) के विषय में छत्तीसगढ़ क्षेत्र की  कोई जानकारी नहीं मिलती। उत्तर वैदिक काल  (1000 -600 ई.पू.) से सम्बंधित जानकारी यहां देखने को मिलतती हैं।  

    रामायण , महाभारत जैसे पुराणों में छत्तीसगढ़ की जानकारी देखने को मिलती है रामायण काल में विंध्याचल पर्वत का दक्षिण भाग को दक्षिण कोशल कहा जाता था जिसके राजा भानुमंत थे एवं उनकी पुत्री माता कौशल्या थी। जो आगे चलकर श्री राम की माता हुई थी।  

    स्थानीय अनुसूचियों के अनुसार राम के 14 वर्षीय वनवास का अधिकांश समय छत्तीसगढ़ के इन्हीं सघन जंगली क्षेत्रों में व्यतीत हुआ था। रामायण काल में इस क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहा जाता था तथा इसकी राजधानी कुशस्थली थी।  दक्षिण कौशल की भाषा को कोसली  कहा जाता था |  

      महाभारत काल में इस क्षेत्र के  सिरपुर में  जिसका प्राचीन नाम चित्रांगतपुर था अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन की राजधानी थी।  इस प्रकार वैदिक साहित्य के अनेक साक्ष्य छत्तीसगढ़ में देखने को मिलते हैं। 

     प्रागैतिहासिक एवं आद्य ऐतिहासिक काल का हमने अध्ययन कर लिया है।यहां पढ़े  अब हम ऐतिहासिक काल का अध्ययन करेंगे 600 ईसा पूर्व के आरंभिक समय को बौद्ध एवं जैन धर्म के उदय के साथ जोड़ा जाता है।  

    बौद्ध एवं जैन धर्म के साक्ष्य भी छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों में देखने को मिलते हैं।  अवदान शतक नामक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार महात्मा बुद्ध ने सिरपुर में तीन माह तक निवास किया था। उस समय इसकी राजधानी श्रावस्ती थी।  चीनी यात्री व्हेनसान्ग ने भी अपनी यात्रा वृतांत में इसका वर्णन किया है। 

     छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु प्रभु आनंद द्वारा सिरपुर में स्वास्तिक विहार एवं आनंद कुटी विहार का निर्माण कराया गया था।  जैन धर्म ग्रंथ भगवती सूत्र के अनुसार कौशल महाजनपद उत्तर कौशल तथा दक्षिण कौशल अर्थात छत्तीसगढ़ में बटा हुआ था।  व्हेनसांग ने छत्तीसगढ़ को किया-स-लो कहकर संबोधित किया है।  

       व्हेनसांग 640 ईसवी में महाशिव गुप्त बालार्जुन के समय सिरपुर की यात्रा की थी।  सिरपुर में बौद्ध एवं जैन धर्म से सम्बंधित  अनेक दर्शनीय स्थल है।  यहां बुद्ध पूर्णिमा को सिरपुर महोत्सव का आयोजन किया जाता है।  

        महाजनपद काल अर्थात परिवर्ती बुध काल  के समय संपूर्ण भारत 16 महाजनपदों में विभाजित था उस समय के प्रमुख शासकों में नंद वंश , मौर्य वंश , सातवाहन वंश आदि प्रमुख है।  इसके साक्ष्य भी छत्तीसगढ़ में यत्र तत्र देखने को मिलते हैं। 

     महाजनपद काल में छत्तीसगढ़ चेदि महाजनपद के अंतर्गत शामिल था।  चेदि महाजनपद की राजधानी शक्तिमति थी।  चेदि  महाजनपद में शामिल होने के कारण इस क्षेत्र को चेदिसगढ़ कहा जाता था उसी के अपभ्रंश से छत्तीसगढ़ बना। 

 

विभिन्न काल के सिक्के 


    मौर्य काल में छत्तीसगढ़ (322 - 185 ईसा पूर्व) 

        ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार छत्तीसगढ़ मौर्य काल में कलिंग अर्थात उड़ीसा क्षेत्र के अंतर्गत शामिल था।  सरगुजा जिले की जोगीमारा एवं सीताबेंगरा गुफा से मौर्यकालीन लेखों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं देवदत्त नर्तक एवं सूतनुका नर्तकी की प्रेम गाथा का वर्णन तथा अशोक के अभिलेख पाली भाषा एवं ब्राम्ही लिपि में यहां प्राप्त हुए है। मौर्य सम्राट अशोक ने दक्षिण कौशल के सिरपुर में स्तूप का निर्माण कराया था इस प्रकार का साक्ष्य  प्राप्त हुआ है।  जांजगीर-चांपा जिले की ठठारी एवं अकलतरा तथा रायगढ़ जिले के बाल एवं तारपुर से मौर्य कालीन सिक्के की प्राप्ति हुई है। 

सातवाहन काल में छत्तीसगढ़ (200 - 72 ईसा पूर्व)

     मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात इस क्षेत्र में सातवाहन वंश का शासन देखने को मिलता हैं। सातवाहन अपनो को स्वयं  दक्षिण पथ का  स्वामी कहते थे।  जांजगीर चांपा जिले के किरारी गांव के तालाब से सातवाहन कालीन कास्ट स्तम्भ प्राप्त हुआ है।  

    सातवाहन के शासक ब्राह्मण जाति से संबंधित थे इनकी राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन वर्तमान महाराष्ट्र क्षेत्र थी। इस वंश के प्रमुख शासकों में गौतमीपुत्र सातकर्णि , अपीलक, वरदत्तश्री आदि प्रमुख थे। सातवाहन काल के रोमन कालीन स्वर्ण मुद्राएं चकरभाटा (बिलासपुर) से प्राप्त हुए हैं , ऐसा लगता है उस समय रोम से उनका व्यापार होता रहा होगा।  

    रायगढ़ जिले के बालपुर एवं बिलासपुर जिले के मल्हार से सातवाहन शासक अपीलक की मुद्राएं प्राप्त हुई है।  बालपुर से प्राप्त गौतमीपुत्र सातकर्णी के तांबे , सीसे तथा पोटीन के सिक्कों से यह पुष्टि होती है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिण कौशल क्षेत्र पर सातवाहनों का प्रत्यक्ष अधिकार था।  सातवाहन के पश्चात इस क्षेत्र पर वाकाटकों  का शासन हुआ।  

कुषाण वंश ( 30 - 375 ईसवी ) 

    कुषाण वंश के शासक कनिष्क के कई सिक्के छत्तीसगढ़ से प्राप्त हुए हैं तेलीकोट रायगढ़ से कुषाण कालीन स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई है। 

वाकाटक वंश ( 300 - 400 ईसवी ) 

    इस वंश की राजधानी नंदीवर्धन अर्थात नागपुर थी। इस वंश का प्रथम शासक विंध्यशक्ति था इसके पश्चात प्रवरसेन  प्रथम इस वंश के शासक हुए।  प्रवरसेन प्रथम के दरबार में महाकवि कालिदास रहते थे। इस समय उन्होंने सरगुजा जिले के रामगढ़ की पहाड़ी पर मेघदूत ग्रंथ की रचना की थी। जिसका  मुकुटधर पांडे द्वारा मेघदूत का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद किया गया था। 

     वाकाटक वंशीय रुद्रसेन ने  गुप्त सम्राटों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए थे।  चंद्रगुप्त-2  की पुत्री प्रभावती से रूद्र सेन प्रथम ने विवाह किया था।  वाकाटक वंश के स्वर्ण मुद्राएं छत्तीसगढ़ के मोहल्ला (दुर्ग) नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। वाकाटको द्वारा गुप्तों की अधीनता स्वीकार करने संबंधी जानकारी प्रभावती के पूना अभिलेख से प्राप्त होती है। 


गुप्त वंश एवं उसके समकालीन राजवंश 

गुप्त वंश  ( 319 - 500 ईसवी ) 

    भारत में मौर्य सातवाहन कुषाण आदि वंश के पतन के पश्चात गुप्त वंश , वाकाटक वंश , नागवंश जैसे कुछ मुख्य राजवंश शासन करने लगे।  जिन्होंने संपूर्ण भारत के बहुत बड़े क्षेत्र पर अपना शासन स्थापित किया था। गुप्त वंश का शासन छत्तीसगढ़ के क्षेत्र में देखने को मिलता है।  

    गुप्त वंश के सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के दक्षिण विजय यात्रा की जानकारी देखने को मिलती है।  इस यात्रा के दौरान समुद्रगुप्त ने दक्षिण कौशल के शासक महेंद्रवर्मन एवं महाकांतर क्षेत्र के शासक व्याघ्रराज ( बस्तर क्षेत्र ) को पराजित किया था।  इस प्रकार इस क्षेत्र पर गुप्त वंश का अधिकार हो गया था। बानबरद ( जिला दुर्ग ) , आरंग ( जिला रायपुर ) से गुप्त कालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं , जो इस क्षेत्र में गुप्त वंश के शासन की पुष्टि करता है।  समुद्रगुप्त ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की थी किंतु उसने अपनी ग्रहण मोक्ष नीति  के तहत इस क्षेत्र को अपने राज्य में शामिल नहीं किया बल्कि व्याघ्रराज एवं महेंद्रवर्मन को उनका राज्य वापस कर दिया था। 

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